Saturday 30 June 2018

केतु महादशा में अंतर्दशा फल

केतु-यदि केतु केन्द्र, त्रिकोण या आय स्थान में शुभावस्था में होकर लग्नेश,भाग्येश व कर्मेश से युक्ति करता हो तो अपनी दशा-अंतर्दशा के प्रारम्भ में शुभ फल प्रदान करता है। इस दशा में जातक को स्वल्प धन का लाभ, पशुधन से लाभ, ग्राम में भूमि लाभ आदि कराता है तथा दशा के अन्त में अशुभ फल प्रदान करता है । अशुभ केतु की दशा में जातक अथक पश्चिम करने पर भी जीविकोपार्जन के साधन नहीं जुटा पाता, नौकरी मिलती नहीं, व्यवसाय में हानि होती है| नौकरी हो तो नौकरी छूट जाती है या कर दिया जाता है । बचपन में यह दशा जातक को चेचक, हैजा, अतिसार, कांच निकलने जैसे रोगो से पीडित करती है। किसी निकट सम्बन्धी के निधन से मन को सन्ताप मिलता है । जातक एक दुख से पीडा छुड़ाता है तो दूसरा दुख आ उपस्थित होता है।
शुक्र-जब केतु की महादशा में शुक्र की अन्तर्दशा व्यतीत हो रही होती है तो जातक की बुद्धि कामासक्त हो जाती है, वह सदैव भोग-विलास जीवन के स्वप्न लेता रहता है, प्रेमकथा, उपन्यास आदि पढने में समय को व्यर्थ गवांता है । सहशिक्षा संस्थानों में इस दशाकाल में युवक-युवतियां एक-दूसरे के साथ भाग जाते है । नीव और भ्रष्ट स्त्रियों अथवा पुरुषों के साथ प्रेम्प्रसंगों के कारण लोकोपवाद सहना पडता है। अनीति और अधर्म के कार्यों में चित्त खूब लगता है, धनलिप्सा बढ़ जाती है, अधिकारी वर्ग रिश्वत लेते पकडे जाते है। पत्नी एव पुत्रों से कलह होती है। जातक वेश्यागमन और सुरापान में अर्जित सम्पत्ति का नाश करता है । प्रतिश्याय, शुक्रक्षय, प्रमेह, से देह से पीडा होती है। मन में इर्षा द्वेष अपना स्थायी स्थान बना लेते है। जातक उन्नति की अपेक्षा अवनति को ही प्राप्त होता है।

सूर्य-केतु की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा में शुभाशुभ दोनों प्रकार के फल मिलते हैं । यदि शुभ और बलवान सूर्य हो तो देह सुख, द्रव्य सुख, राज्यानुग्रह एव स्वल्प वैभव व तीर्थाटन आदि पाल मिलते हैं । अशुभ सूर्य होने पर जातक के मन में भ्रम व बुद्धि में आवेश आ जाता है। जातक व्यर्थ में क्रोध करने वाला, अपने से दण्ड पाने सीता तथा पदोन्नति में वस्थाओ का सामना करने बाता होता है । वाद-विवाद में पराजय, प्रवास में धनहानि और देहकष्ट निलता है । दुर्घटना में हड्डी टूटने का भय अथवा अंग-भंग होने की आशंका रहती है। निकृष्ट भोजन खाने से देह मेँ विषैला प्रभाव, आंखों से जलन, पित्त में उग्रता तथा शिरोवेदना होती है । माता-पिता से कलह, चोर, सर्प, अग्नि से भय तथा सभी कार्यों में असफलता मिलने से मन में हीनता आ जाती है। अपपृत्यु का भय रहता है।
चन्द्रमा-यदि चन्द्रमा अपने उच्च स्थान मै, स्वस्थान में केन्द्र या त्रिकोण का अधिपति होकर शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट हो तथा पूर्ण बली हो तो अपनी अन्तर्दशा आने पर शुभ फलों को देता है । इस दशाकाल में जातक सत्ता में मान-आदर पाता है। भूमि, धन का लाभ होता है, वाहन, निवास क्या वस्त्राभूषण की प्राप्ति और सरोवर, देवालय आदि बनाने में धन का व्यय क्या स्त्री-पुत्र आदि से सुख मिलता है। अशुभ चन्द्र की अन्तर्दशा में जातक कामान्ध हो, उंच-नीच, धर्म-जाति का विचार त्पाग कर प्रेम-प्रसंग बना लेता है । लोकोपवाद, अपयश तथा परिजनों से विरोध के कारण मानहानि, दुर्गम स्थानो, पुराने और सुनसान भवनों में घूमने का शौक बढ़ता है । जातक में भावुकता बढ़ जाती है, जिसके कारण अविवेकी बन वह प्रत्येक कार्य में हानि उठाता है । इस दशा से शुभाशुभ मिश्रित फल प्राप्त होते हैं ।
मंगल- क्षत्रिय ग्रह है तथा केतु से भी मंगल के गुणों की प्रधानता है, इसलिए शुभ और बलवान मंगल की अन्तर्दशा में जातक के उत्साह से वृद्धि हो जाती है, जातक साहसिक और प्रारंभिक कार्यों में विक्षेप रुधि लेता है क्या इनमें सफल होकर मान-सम्मान तथा पारितोषिक प्राप्त करता है ।सैन्य कर्मचारी हो तो पद में वृद्धि और सेवापदक तथा धन मिलता है । जातक में हिंसक प्रवृत्ति बढ़ जाती है जो कि सेना को छोड़कर अन्य जगह अशोभनीय मानी जाती है। अशुभ मंगल की अन्तर्दशा में हिंसक प्रवृत्ति अधिक उग्र हो जाती है तथा जातक क्रोध में हत्या तक कर डालता है और परिणामस्वरुप कारावास दण्ड अथवा मृत्युदण्ड पाता है | अभक्ष्य-भक्षण करता है, फलत: रक्तविकार, रक्तचाप, रक्तार्श, फोड़ा-फुन्सी एवं उद व्याधि से पीडित होता है।

राहु-यदि राहु शुभ राशिगत होकर केन्द्र, त्रिक्रोण अथवा शुभ स्थान में हो तो केतु महादशा में जब राहु की अन्तर्दशा आती है तो जातक को अहिंसक रूप से तत्काल धनलाभ एव ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। किसी प्लेच्छ (विदेशी पश्चिम.) से विशेष सहायता मिलती है । चौपायों का व्यवसाय लाभप्रद रहता है । जातक ग्रामसभा का सदस्य बनता है । अशुभ राहु की अन्तर्दशा में अत्यन्त निकृष्ट फल मिलते हैं । कुकर्मों के लिए राज्य से दण्ड मिलता है। छोर, अग्नि, दुर्घटना का भय रहता है, सर्पदंश के कारण मृत्यु के दर्शन होते हैं, लेकिन जान बच जाती है । सभी कार्यों में असफलता मिलती है । बनंघु-बान्धवों, परिजनों से वल्लाह होती है क्या वियोग होता है, सप्तमेश से युक्त हो तो जीवनसाथी की मृत्यु अथवा तलाक हो जाता है, रीढ के हड्डी में दर्द, वातरोग, अफारा, मन्दाग्नि आदि से देहपीड़ा होती है। विषम ज्वर स्वास्थ्य क्षीण कर मरणान्तक कष्ट देता है ।
बृहस्पति-शुभ, बलवान एबं कारक बृहस्पति की अन्तर्दशा में जातक का चित्त पूर्व दशा की अपेक्षा कुछ शान्त एवं धर्म कार्यों में रुचि लेने वाला रहता है, तीर्थयात्रा तथा देशाटन में धन का सद्व्यय होता है । ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति होती है, मन में उत्साह बना रहता है । देव-गौ-ब्राहाण के प्रति निष्ठा और इनकी कृपा से सम्पति का लाभ होता है । सात्विक एवं उच्च विचार बन जाते हैं, स्वाध्याय, मन्त्रजाप तथा ईश्वर आराधना में खूब मन लगता है। ग्रन्थ-लेखन से सम्मान प्राप्त होता है। अशुभ बृहस्पति की अन्तर्दशा चलने पर पुत्रलाभ, स्त्री को रोग अथवा उस से वियोग तथा स्थानच्युति होती है । प्रवास अधिक करने होते हैं, यात्रा में चोर-ठगों द्वार सम्पति की हानि होती है । नीच लोगों की संगति के कारण अपवाद एव अपयश मिलता है । क्रोधावेग बढ़ जाता है और जातक व्यर्थ में झगडे करता है। सर्पविष से मृत्यु समान कष्ट मिलता है, किन्तु प्राणान्त नहीं होता ।
शनि-यदि शनि परमोच्व, स्यस्थान में, शुभ ग्रह से युक्त या दुष्ट हो तो जाता को अपनी अन्तर्दशा में शुभाशुभ दोनों प्रकार के पाल प्रदान करता है । जातक के सब कार्य पूर्ण हो जाते हैं, स्वग्राम में मुखिया अथवा ग्रामसभा का सदस्य बनता है, धर्म के अपेक्षा अधर्म में रुचि रहती है, लोहे, काष्ठादि के व्यवसाय में लाभ मिलता है, अष्ट व्यवसाय से हानि मिलती है । अशुभ, अस्त, वक्री शनि की अन्तर्दशा में जातक अनेक कष्ट भोगता है जीवकोपार्जन के लिए भटकना पड़ता है, कठिन श्रम करने पर भी इष-सिद्धि नहीं होती अनेक अशुभ समाचार सुनने को मिलते हैं, शत्रु प्रबल हो जाते हैं तथा घात लगाकर हमला करते है । दूषित अन्न ग्रहण करने से वात-कफ दूषित हो जाते हैं, वायुगोला, कास, स्वास,गठिया, मन्दाकिनी आदि रोग हो जाते हैं । स्व-बन्धुओ से मनोमाल्नीय बढ़ता है जायदाद के मुकाबले में हार एव परदेश गमन होता है ।
बुध- यदि बुध शुभ, बलवान अवस्था में हो तथा उसकी अंतर्दशा वर्तमान हैं तो शुभ फल मिलते हैं । जातक शति दज्ञाकाल में प्राप्त दुखों से छुटकारा पाकर किंचित सुख की सास लेता है। पठन-पाठन में रुचि बढ़ती है। रुके कार्य पूरे हो जाते हैं लोक-समाज में मान-सम्मान बढता है। विधुत समाज के साथ सपागम, आप्तजनों से मिलन एव सप्पत्ति लाभ होता है। पुराने मित्र से मिलने की प्रबलता, नवीन ज्ञान के प्राप्ति, कार्य-व्यवसाय में प्रगति एव सुयश मिलता है। अशुभ बुध की अन्तर्दधग़ में जावा-व्यवसाय में हानि प्राप्त होती है। गृह-कलह
बढ़ जाती है, मित्र भी शत्रुवत व्यवहार करते हैं, शत्रुओ, चोरों और ठगों से सप्पत्ति हानि का भय, सन्तान को पीडा मिलती है । मन को सन्ताप तथा देह को बात्त-पित्तजन्य रोग, उदरशूल, कामता, गठिया आदि से कष्ट मिलता
है।

नींद न आने पर जपने हेतु मन्त्र जिससे तुरन्त नींद आ जाती है

नींद न आने पर जपने हेतु मन्त्र जिससे तुरन्त नींद आ जाती है।*
*कब नींद अच्छी आती है?*
नींद व्यक्ति की सबसे ज्यादा आवश्यक आवश्यकता है. बिना नींद या कम नींद के हम कई बीमारियों और समस्याओं के शिकार हो सकते हैं. ज्योतिष में लग्न,चतुर्थ,अष्टम और द्वादश भाव से नींद और शैय्या सुख देखा जाता है. शनि नींद का प्रमुख ग्रह है. इसके अलावा चन्द्रमा,शुक्र और बुध भी नींद से सम्बन्ध रखते हैं. जलीय और वायु राशियाँ भी नींद की ही राशियाँ होती हैं.
*कब नींद अच्छी आती है?*
- शनि की प्रधानता होने से
-चन्द्रमा,शुक्र या बुध के अच्छे स्थान पर होने से अच्छी नींद आती है
-केंद्र या अष्टम भाव में केवल शुभ ग्रह होने से भी अच्छी नींद आती है
-कुंडली में जल तत्व की मात्रा मजबूत होने पर भी नींद अच्छी होती है
-कर्क,वृश्चिक,मीन,मिथुन,तुला और कुम्भ राशी के लोगों को सामान्यतः अच्छी नींद आती है
-जिनके घर के पास जल का स्रोत होता है ऐसे लोगों को भी अच्छी नींद आती है
कब नींद आने में समस्या होती है?
- शनि के दूषित होने पर नींद मे समस्या होती ही है
-चन्द्रमा या शुक्र के पीड़ित होने पर अकारण नींद नहीं आती
-इनके साथ अगर बुध पीड़ित हो तो चिंता से नींद नहीं आती
-अगर कुंडली में अग्नि तत्व या पृथ्वी तत्व प्रधान हो तो भी मुश्किल होती है
-मंगल की प्रचंडता शारीरिक तकलीफ से नींद नहीं आने देती
*क्या हैं अच्छी नींद के ज्योतिषीय उपाय?*
-सोने के कमरे का रंग क्रीम , हल्का हरा या गुलाबी रखें
-कमरे में हल्की सुगंध का प्रयोग करें
-पलंग के नीचे कोई भी सामान न रखें , खास तौर से लोहा
- शयन कक्ष मे गंदे कपड़े भी न रखें
-गले में चांदी जरूर धारण करें, लाल तिलक का प्रयोग न करें
-पलंग के पाए के पास लोटे में जल भरकर रक्खें सुबह उठकर उस जल को पौधों में डाल दें
-जिस कमरे में सूर्य और चन्द्रमा की किरणें आती हों उसी कमरे को सोने के लिए प्रयोग करें।
*अच्छी नींद लाने का मन्त्र*
*"सुद्धे सुद्धे महायोगिनी महानिद्रे स्वाहाः "।*
जब आपको नींद न आए और कोई टेंशन हो तो पूरी श्रद्धा से मन ही मन इस मंत्र का 11 बार जाप करे । 11 बार मंत्र पूरा होने से पहले ही आपको उबासी एवं नींद आने लग जाएगी ।

करेंगे ये उपाय तो तुरन्त छूट जाएगी शराब की लत

*करेंगे ये उपाय तो तुरन्त छूट जाएगी शराब की लत 
शराब की लत छुड़ाने के कई ऐसे उपाय बताए गए हैं जो दिखते साधारण हैं परन्तु जिनका असर तुरंत और बेहद प्रभावशाली होता है।
बहुत से माता-पिता तथा महिलाएं अपने बेटों अथवा पति के शराबी होने के कारण दुखी हैं और जल्द से जल्द अपने प्रियजनों को इस बुरी लत से दूर करना चाहते हैं। भारतीय ज्योतिष में भी शराब की लत छुड़ाने के कई ऐसे उपाय बताए गए हैं जो बिल्कुल ही साधारण हैं परन्तु जिनका असर तुरंत और बेहद प्रभावशाली होता है।
*प्रथम उपाय-*
किसी भी रविवार को एक शराब की बोतल लाए, यह उसी ब्रांड की होनी चाहिए जिसका आपके पति (या अन्य परिजन) प्रयोग करते हैं। इस बोतल को रविवार के ही दिन अपने निकट के किसी भी भैरव बाबा के मंदिर में चढ़ा दें और पुजारी को कुछ रूपए देकर उससे वह बोतल वापिस खरीद लें। पति के सोते समय अथवा जब वह नशे में हो, उस पूरी बोतल को उनके ऊपर 21 बार उसारते हुए "ॐ नमः भैरवाय" मंत्र का जाप करें। इसके बाद बोतल को शाम को किसी भी पीपल के पेड़ के नीचे छोड़ आएं। इस उपाय से कुछ ही दिनों में शराबी की शराब पूरी तरह से छूट जाएगी।
*दूसरा उपाय*
यह भी पहले उपाय की ही तरह है परन्तु थोड़ा सा जटिल हैं इसमें आप एक शराब की बोतल खरीद कर लाएं और शराब के लती परिजन को सोते समय उन पर से 21 बार उसार लें। इसके बाद एक अन्य बोतल में आठ सौ ग्राम सरसों का तेल लें और दोनों को आपस में मिला लें। दोनों बोतलों के ढक्कन बंद कर किसी ऐसे स्थान पर उल्टा गाढ़ दें जहां से पानी बहता हो ताकि दोनों बोतलों के ऊपर से जल लगातार बहता रहे। इस उपाय को करने के कुछ ही दिनों में व्यक्ति को शराब से घृणा हो जाती है।

महाशक्तिशाली बगलामुखी यन्त्र /कवच

सार्वभौम उन्नति ,लाभप्रद ऊर्जा प्रवाह और नकारात्मकता ,भूत -प्रेत के शमन हेतु
भगवती बगलामुखी दस महाविद्याओं में से एक प्रमुख महाविद्या और शक्ति हैं ,जिन्हें ब्रह्मास्त्र विद्या या शक्ति भी कहा जाता है |यह परम तेजोमय शक्ति है जिनकी शक्ति का मूल सूत्र -प्राण सूत्र है |प्राण सूत्र ,प्रत्येक प्राणी में सुप्त अवस्था में होता है जो इनकी साधना से चैतन्य होता है ,इसकी चैतन्यता से समस्त षट्कर्म भी सिद्ध हो सकते है ,,बगलामुखी को सिद्ध विद्या भी कहा जाता है ,मूलतः यह स्तम्भन की देवी है पर समस्त षट्कर्म इनके द्वारा सिद्ध होते है और अंततः यह मोक्ष प्रदान करने में सक्षम है …
,ताबीज आदि में एक बृहद उर्जा विज्ञानं काम करता है ,जो ब्रह्मांडीय उर्जा संरचना ,क्रिया ,तरंगों ,उनसे निर्मित भौतिक इकाइयों की उर्जा संरचना का विज्ञानं है ,,,इस उर्जा संरचना को ही तंत्र कहा जाता है |इसकी तकनीक प्रकृति की स्वाभाविक तकनीक है ,,,यही तकनीक तंत्र ,योग ,सिद्धि ,साधना में प्रयुक्त की जाती है ,-ताबीज में प्राणी के शारीर और प्रकृति की उर्जा संरचना ही कार्य करती है ,,इनका मुख्या आधार मानसिक शक्ति का केंद्रीकरण और भावना होता है ,,,,प्रकृति में उपस्थित वनस्पतियों और जन्तुओ में एक उर्जा परिपथ कार्य करता है ,मृत्यु के बाद भी इनमे तरंगे कार्य करती है ,,,,इनमे विभिन्न तरंगे स्वीकार की जाती है और निष्कासित की जाती है |जब किसी वास्तु या पदार्थ पर मानसिक शक्ति और भावना को केंद्रीकृत करके विशिष्ट क्रिया की जाती है तो उस पदार्थ से तरंगों का उत्सर्जन होने लगता है ,,,,जिस भावना से उनका प्रयोग जिसके लिए किया जाता है ,वह इच्छित स्थान पर वैसा कार्य करने लगता है,,ताबीज बनाने वाला जब अपने ईष्ट में सचमुच डूबता है तो वह अपने ईष्ट के अनुसार भाव को प्राप्त होता है ,,भाव गहन है तो मानसिक शक्ति एकाग्र होती है ,जिससे वह शक्तिशाली होती है ,यह शक्तिशाली हुई तो उसके उर्जा परिपथ का आंतरिक तंत्र शक्तिशाली होता है और शक्तिशाली तरंगे उत्सर्जित करता है |ऐसा व्यक्ति यदि किसी विशेष समय,ऋतू-मॉस में विशेष तरीके से ,विशेष पदार्थो को लेकर अपनी मानसिक शक्ति और मन्त्र से उसे सिद्ध करता है तो वह ताबीज धारक व्यक्ति को उस भाव की तरंगों से लिप्त कर देता है |यह समस्त क्रिया शारीर के उर्जा चक्र को प्रभावित करती है और तदनुसार व्यक्ति को उनका प्रभाव दिखाई देता है ,साथ ही इनका प्रभाव आस पास के वातावरण पर भी पड़ता है क्योकि तरंगों का उत्सर्जन आसपास भी प्रभावित करता है |
बगलामुखी यन्त्र माता बगलामुखी का निवास माना जाता है जिसमे वह अपने अंग विद्याओ ,शक्तियों ,देवों के साथ निवास करती है ,अतः यन्त्र के साथ इन सबका जुड़ाव और सानिध्य प्राप्त होता है ,,यन्त्र के अनेक उपयोग है ,यह धातु अथवा भोजपत्र पर बना हो सकता है ,पूजन में धातु के यन्त्र का ही अधिकतर उपयोग होता है ,पर सिद्ध व्यक्ति से प्राप्त भोजपत्र पर निर्मित यन्त्र बेहद प्रभावकारी होता है ,,धारण हेतु भोजपत्र के यन्त्र को धातु के खोल में बंदकर उपयोग करते है ,,जब व्यक्ति स्वयं साधना करने में सक्षम न हो तो यन्त्र धारण मात्र से उसे समस्त लाभ प्राप्त हो सकते है ,|
यन्त्र /कवच धारण से लाभ
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1. बगलामुखी की कृपा से व्यक्ति की सार्वभौम उन्नति होती है |,
2. शत्रु पराजित होते है ,सर्वत्र विजय मिलती है |
3. ,मुकदमो में विजय मिलती है ,वाद विवाद में सफलता मिलती है |
4. अधिकारी वर्ग की अनुकूलता प्राप्त होती है ,|
5. विरोधी की वाणी ,गति का स्तम्भन होता है |,
6. शत्रु की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है ,उसका स्वयं विनाश होने लगता है |,,
7. ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ,|हर कार्य और स्थान पर सफलता बढ़ जाती है |
8. व्यक्ति के आभामंडल में परिवर्तन होने से लोग आकर्षित होते है |,
9. प्रभावशालिता बढ़ जाती है ,वायव्य बाधाओं से सुरक्षा होती है |,10. तांत्रिक क्रियाओं के प्रभाव समाप्त हो जाते है ,सम्मान प्राप्त होता है ,|
11. ,परीक्षा ,प्रतियोगिता आदि में सफलता बढ़ जाती है |,
12. भूत-प्रेत-वायव्य बाधा की शक्ति क्षीण होती है क्योकि इसमें से निकलने वाली सकारात्मक तरंगे उनके नकारात्मक ऊर्जा का ह्रास करते हैं और उन्हें कष्ट होता है |,
13. मांगलिक और उग्र देवी होने से नकारात्मक शक्तियां इनसे दूर भागती हैं |
14. मांगलिक ,पारिवारिक कार्यों में आ रही रुकावट दूर होती है |
15. धारक पर से किसी भी तरह के नकारात्मक दोष दूर होते हैं |16. शरीर में सकारात्मक ऊर्जा प्रवाह बढने से आत्मबल और कार्यशीलता में वृद्धि होती है |
17. आलस्य ,प्रमाद का ह्रास होता है |व्यक्ति की सोच में परिवतन आता है ,उत्साह में वृद्धि होती है |
18 किसी भी व्यक्ति के सामने जाने पर सामने वाला प्रभावित हो बात मानता है और उसका विरोध क्षीण होता है |,
19 घर -परिवार में स्थित नकारात्मक ऊर्जा की शक्ति क्षीण होती है |
20. नौकरी ,व्यवसाय ,कार्य में स्थायित्व प्राप्त होता है |
यह समस्त प्रभाव यन्त्र धारण से भी प्राप्त होते है और साधना से भी ,साधना से व्यक्ति में स्वयं यह शक्ति उत्पन्न होती है |,यन्त्र धारण से यन्त्र के कारण यह उत्पन्न होता है |,यन्त्र में उसे बनाने वाले साधक का मानसिक बल ,उसकी शक्ति से अवतरित और प्रतिष्ठित भगवती की पारलौकिक शक्ति होती है जो वह सम्पूर्ण प्रभाव प्रदान करती है जो साधना में प्राप्त होती है |,अतः आज के समय में यह साधना अथवा यन्त्र धारण बेहद उपयोगी है |.
जय सीयाराम....

Friday 29 June 2018

पाराशरी सिद्धांत क्या है?

पाराशरी सिद्धांत क्या है?
लघुपाराशरी एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके बिना फलित ज्योतिष का ज्ञान अधूरा है। पाराशरी सिद्धांतों का लघुपाराशरी में वर्णन किया गया है। संस्कृत श्लोकों में रचित लघु ग्रन्थ लघुपाराशरी में फलित ज्योतिष संबंधी सिद्धांतों का वर्णन है और ये 42 सूत्रों के माध्यम से वर्णित है। एक-एक सूत्र अपने आप में अमूल्य है, इसे 'जातकचन्द्रिका' "उडुदाय प्रदीप" भी कहा जाता है। यह विंशोत्तरी दशा पद्धति का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है तथा वृहद् पाराशर होराशास्त्र पर आधारित है। फलित ज्योतिष विद्या के महासागर रुपी ज्ञान को अर्जित करने के लिए पाराशर सिद्धांतों पर आधारित लघुपाराशरी एक बहुमूल्य साधन सिद्ध हो सकती है। इस पुस्तक का कोई एक लेखक नहीं है। यह पुस्तक पाराशरी सिद्धांत को मानने वाले महर्षि पाराशर, उनके अनुयायियों, प्रकांड विद्वानों द्वारा सामूहिक रूप से सम्पादित है।
फलित ज्योतिष पर आधारित इस ग्रंथ के आधार में कई बडे ग्रंथों की रचना की गई। फलित ज्योतिष पर आधारित इस ग्रन्थ को अधिकतम ज्योतिषी भविष्यवाणी करने के लिए प्रयोग में लाते हैं। इस ग्रंथ में मूलतः पाराशर सिद्धांतों के 42 सूत्रों में नौ ग्रहों की विविध भावों में उपस्थिति, ग्रहों की मित्रता, शत्रुता अथवा सम होना, ग्रहों की पूर्ण व आंशिक दृष्टियों का उल्लेख, भाव, कारकों, दशाओं, राजयोग, मृत्यु योग सहित भावानुसारी फलादेश आदि पर वर्णन किया गया है।
क्‍या कहता है ज्‍योतिष शास्त्र -
ज्‍योतिष शास्त्र के अनुसार, बारह राशियां होती है और हर राशि वाले व्यक्ति की कुंडली में बारह भाव होते हैं जो नौ ग्रहों की दशा से प्रभावित होते हैं। सात मुख्य ग्रहों सूर्य, चन्द्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि के साथ-साथ 2 और ग्रहों राहु और केतु का कुंडली में बहुत ख़ास स्थान होता है।
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार, हर व्यक्ति की कुंडली में मारक और कारक दशा होती है जो ग्रहों के कारण बनती है। ऐसी ही एक दशा मारकेश है जो ग्रहों के कारण बनती है। मारकेश सिद्धांतों को संक्षिप्त में पराशर सिद्धांत्तों का आधार बताया जाता है।
लघुपाराशरी में 42 सूत्र या श्लोक हैं जो पाँच अध्यायों में विभक्त हैं।
1. संज्ञाध्याय
2. योगाध्याय
3. आयुर्दायाध्याय
4. दशाफलाध्याय
5. शुभाशुभग्रहकथनाध्याय
पाराशरी संहिता में निहित मूलभूत सिद्धांतों का वर्णन और शुभ फलों की प्राप्ति के कारक :
• जब किसी व्यक्ति की कुंडली में ग्रह एक-दूसरे की राशि में होते हैं तो शुभ फल प्राप्त होते है।
• जब किसी व्यक्ति की कुंडली में ग्रह एक-दूसरे से दृष्टि संबंध में हो तो शुभ फल प्राप्त होते है।
• कुंडली में ग्रहों की परस्पर युति होने पर शुभ फल प्राप्त होते हैं।
• कुंडली में एक ग्रह दूसरे ग्रह को संदर्भित करता हो तो शुभ फल प्राप्त होते हैं।
इन स्थितियों में होती है शुभ फलों की प्राप्ति असंभव -
महर्षि पाराशर मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर शुभ फलों की प्राप्ति के कारको में कुछ ऐसी बाधाओं का भी वर्णन है जिसके रहते शुभ फलों की प्राप्ति असंभव हो जाती है। उन बाधाओं का वर्णन नीचे दिया गया है।
• नैसर्गिक शुभ ग्रह केंद्राधिपत्य रूप से दोषी न हो।
• गुरु, मंगल, शनि तथा बुध ग्रहों की दूसरी राशि दुष्ट स्थानों में न हो।
• पूर्व वर्णित चारों ही स्थितियों में ग्रहों की युति किसी अन्य पापी या क्रूर ग्रह से न हो।
• ग्रह शत्रु गृही, नीचस्तंगत या पाप कर्तरी स्थिति में न हो।
• ग्रहों को पाप मध्यत्व न प्राप्त हो।
पाराशर सिद्धांतों के 42 सूत्रों का वर्णन:
1. फल कहते हैं- नक्षत्रों की दशा के अनुसार ही शुभ-अशुभ फल कहते हैं। इस ग्रंथ के अनुसार फल कहने में विंशोत्तरी दशा ही ग्रहण करनी चाहिए। अष्टोत्तरी दशा यहां ग्राह्य नहीं है।
2. ज्योतिष शास्त्र- सामान्य ग्रंथों पर से भाव, राशि इत्यादि की जानकारी ज्योतिष शास्त्रों से जाननी चाहिए। इस ग्रंथ में जो विरोध संज्ञा है वह शास्त्रम के अनुरोध से कहते हैं।
3. ग्रह का स्थान- सभी ग्रह जिस स्थान पर बैठे हों, उससे सातवें स्थान को देखते हैं। शनि तीसरे व दसवें, गुरु नवम व पंचम तथा मंगल चतुर्थ व अष्टम स्थान को विशेष देखते हैं।
4. त्रिषडाय के स्‍वामी- कोई भी ग्रह त्रिकोण का स्वामी होने पर शुभ फलदायक होता है। (लगन, पंचम और नवम भाव को त्रिकोण कहते हैं) तथा त्रिषडाय का स्वामी हो तो पाप फलदायक होता है (तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव को त्रिषडाय कहते हैं।)
5. त्रिषडाय को अशुभ फल - सिद्धांत 4 में निहित स्थिति के बावजूद त्रिषडाय के स्वामी अगर त्रिकोण के भी स्वामी हो तो अशुभ फल ही आते हैं।
6. सौम्या ग्रह (बुध, गुरु, शुक्र और पूर्ण चंद्र) यदि केन्द्रों के स्वामी हो तो शुभ फल नहीं देते हैं।
7. क्रूर ग्रह (रवि, शनि, मंगल, क्षीण चंद्र और पापग्रस्तय बुध) यदि केन्द्र के अधिपति हो तो वे अशुभ फल नहीं देते हैं। ये अधिपति भी उत्तरोतर क्रम में बली हैं। (यानी चतुर्थ भाव से सातवां भाव अधिक बली, तीसरे भाव से छठा भाव अधिक बली)
8. स्व स्थान ना होने पर रिजल्‍ट- लग्‍न से दूसरे अथवा बारहवें भाव के स्वामी दूसरे ग्रहों के सहचर्य से शुभ अथवा अशुभ फल देने में सक्षम होते हैं। इसी प्रकार अगर वे स्व स्थान पर होने के बजाय अन्य भावों में हो तो उस भाव के अनुसार फल देते हैं। (इन भावों के अधिपतियों का खुद का कोई आत्मनिर्भर रिजल्ट नहीं होता है।)
9. लग्नेश होने पर शुभ फल- आठवां भाव नौंवे भाव से बारहवें स्थान पर पड़ता है, अत: शुभफलदायी नहीं होता है। यदि लग्नेश भी हो तभी शुभ फल देता है (यह स्थिति केवल मेष और तुला लग्न में आती है)
10. केन्द्राधिपति ग्रह- शुभ ग्रहों के केन्द्राधिपति होने के दोष गुरु और शुक्र के संबंध में विशेष हैं। ये ग्रह केन्द्राधिपति होकर मारक स्थान (दूसरे और सातवें भाव) में हो या इनके अधिपति हो तो बलवान मारक बनते हैं।
11. सूर्य और चंद्रमा को अष्टमेश दोष नहीं- केन्द्राधिपति दोष शुक्र की तुलना में बुध का कम और बुध की तुलना में चंद्र का कम होता है। इसी प्रकार सूर्य और चंद्रमा को अष्टमेश होने का दोष नहीं लगता है।
12. मंगल दशमेश होने से देगा अशुभ फल - मंगल दशम भाव का स्वामी हो तो शुभ फल देता है। किंतु यही त्रिकोण का स्वामी भी हो तभी शुभफलदायी होगा। केवल दशमेश होने से नहीं देगा। (यह स्थिति केवल कर्क लग्‍न में ही बनती है)
13. राहु और केतु जिन-जिन भावों में बैठते हैं, अथवा जिन-जिन भावों के अधिपतियों के साथ बैठते हैं तब उन भावों अथवा साथ बैठे भाव अधिपतियों के द्वारा मिलने वाले फल ही देंगे। (यानी राहु और केतु जिस भाव और राशि में होंगे अथवा जिस ग्रह के साथ होंगे, उसके फल देंगे)। फल भी भावों और अधिपतियों के मुताबिक होगा।
14. केन्द्राधिपति और त्रिकोणाधिपति - ऐसे केन्द्राधिपति और त्रिकोणाधिपति जिनकी अपनी दूसरी राशि भी केन्द्र और त्रिकोण को छोड़कर अन्य स्थानों में नहीं पड़ती हो, तो ऐसे ग्रहों के संबंध विशेष योगफल देने वाले होते हैं।
15. बलवान त्रिकोण और केन्द्र के अधिपति खुद दोषयुक्त हों, लेकिन आपस में संबंध बनाते हैं तो ऐसा संबंध योगकारक होता है।
16. धर्म और कर्म स्थान के स्वामी अपने-अपने स्थानों पर हों अथवा दोनों एक दूसरे के स्थानों पर हों तो वे योगकारक होते हैं। यहां कर्म स्थान दसवां भाव है और धर्म स्थान नवम भाव है। दोनों के अधिपतियों का संबंध योगकारक बताया गया है।
17. राजयोग कारक - नवम और पंचम स्थान के अधिपतियों के साथ बलवान केन्द्राधिपति का संबंध शुभफलदायक होता है। इसे राजयोग कारक भी बताया गया है।
18. योगकारक ग्रहों (यानी केन्द्र और त्रिकोण के अधिपतियों) की दशा में बहुधा राजयोग की प्राप्ति होती है। योगकारक संबंध रहित ऐसे शुभ ग्रहों की दशा में भी राजयोग का फल मिलता है।
19. योगज फल - योगकारक ग्रहों से संबंध करने वाला पापी ग्रह अपनी दशा में तथा योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में जिस प्रमाण में उसका स्वयं का बल है, तदानुसार वह योगज फल देगा। (यानी पापी ग्रह भी एक कोण से राजयोग में कारकत्व की भूमिका निभा सकता है।)
20. यदि एक ही ग्रह केन्द्र व त्रिकोण दोनों का स्वामी हो तो योगकारक होता ही है। उसका यदि दूसरे त्रिकोण से संबंध हो जाए तो उससे बड़ा शुभ योग क्या हो सकता है।
21. राहु अथवा केतु यदि केन्द्र या त्रिकोण में बैठे हों और उनका किसी केन्द्र अथवा त्रिकोणाधिपति से संबंध हो तो वह योगकारक होता है।
22. राजयोग भंग - धर्म और कर्म भाव के अधिपति यानी नवमेश और दशमेश यदि क्रमश: अष्टमेश और लाभेश हों तो इनका संबंध योगकारक नहीं बन सकता है। (उदाहरण के तौर पर मिथुन लग्‍न) । इस स्थिति को राजयोग भंग भी मान सकते हैं।
23. मारक स्थान - राजयोग भंग जन्म स्थान से अष्टम स्थान को आयु स्थान कहते हैं। और इस आठवें स्थान से आठवां स्थान आयु की आयु है अर्थात लग्‍न से तीसरा भाव। दूसरा भाव आयु का व्यय स्थान कहलाता है। अत: द्वितीय एवं सप्तम भाव मारक स्थान माने गए हैं।
24. जातक की मृत्यु - द्वितीय एवं सप्ताम मारक स्थानों में द्वितीय स्थान सप्तम की तुलना में अधिक मारक होता है। इन स्थानों पर पाप ग्रह हो और मारकेश के साथ युक्ति कर रहे हों तो उनकी दशाओं में जातक की मृत्यु होती है।
25. मृत्यु का संकेत- यदि उनकी दशाओं में मृत्यु की आशंका न हो तो सप्तमेश और द्वितीयेश की दशाओं में मृत्यु होती है।
26. मारकत्व गुण - मारक ग्रहों की दशाओं में मृत्यु ना होती हो तो कुण्डली में जो पापग्रह बलवान हो उसकी दशा में मृत्यु होती है। व्ययाधिपति की दशा में मृत्यु न हो तो व्ययाधिपति से संबंध करने वाले पापग्रहों की दशा में मरण योग बनेगा। व्ययाधिपति का संबंध पापग्रहों से न हो तो व्ययाधिपति से संबंधित शुभ ग्रहों की दशा में मृत्यु् का योग बताना चाहिए। ऐसा समझना चाहिए। व्ययाधिपति का संबंध शुभ ग्रहों से भी न हो तो जन्म लग्‍न से अष्टम स्थान के अधिपति की दशा में मरण होता है। अन्यथा तृतीयेश की दशा में मृत्यु होगी। (मारक स्थानाधिपति से संबंधित शुभ ग्रहों को भी मारकत्व का गुण प्राप्त होता है।)
27. मारक ग्रहों की दशा में मृत्यु न आए तो कुण्डली में जो बलवान पापग्रह हैं उनकी दशा में मृत्यु की आशंका होती है। ऐसा विद्वानों को मारक कल्पित करना चाहिए।
28. शनि ग्रह- पापफल देने वाला शनि जब मारक ग्रहों से संबंध करता है तब पूर्ण मारकेशों को अतिक्रमण कर नि: संदेह मारक फल देता है। इसमें संशय नहीं है।
29. शुभ अथवा अशुभ फल - सभी ग्रह अपनी अपनी दशा और अंतरदशा में अपने भाव के अनुरूप शुभ अथवा अशुभ फल प्रदान करते हैं। (सभी ग्रह अपनी महादशा की अपनी ही अंतरदशा में शुभफल प्रदान नहीं करते)
30. दशानाथ जिन ग्रहों के साथ संबंध करता हो और जो ग्रह दशानाथ सरीखा समान धर्म हो, वैसा ही फल देने वाला हो तो उसकी अंतरदशा में दशानाथ स्वंय की दशा का फल देता है।
31. दशानाथ के संबंध रहित तथा विरुद्ध फल देने वाले ग्रहों की अंतरदशा में दशाधिपति और अंतरदशाधिपति दोनों के अनुसार दशाफल कल्पना करके समझना चाहिए। (विरुद्ध व संबंध रहित ग्रहों का फल अंतरदशा में समझना अधिक महत्वपूर्ण है)
32. केन्द्र का स्वामी और त्रिकोणेश - केन्द्र का स्वामी अपनी दशा में संबंध रखने वाले त्रिकोणेश की अंतरदशा में शुभफल प्रदान करता है। त्रिकोणेश भी अपनी दशा में केन्द्रेश के साथ यदि संबंध बनाए तो अपनी अंतरदशा में शुभफल प्रदान करता है। यदि दोनों का परस्पर संबंध न हो तो दोनों अशुभ फल देते हैं।
33. राज्याधिकार से प्रसिद्धि- यदि मारक ग्रहों की अंतरदशा में राजयोग आरंभ हो तो वह अंतरदशा मनुष्य को उत्तरोतर राज्याधिकार से केवल प्रसिद्ध कर देती है। पूर्ण सुख नहीं दे पाती है।
34. राज्य से सुख और प्रतिष्ठा - अगर राजयोग करने वाले ग्रहों के संबंधी शुभग्रहों की अंतरदशा में राजयोग का आरंभ हो तो राज्य से सुख और प्रतिष्ठा बढ़ती है। राजयोग करने वाले से संबंध न करने वाले शुभग्रहों की दशा प्रारंभ हो तो फल सम होते हैं। फलों में अधिकता या न्यूनता नहीं दिखाई देगी। जैसा है वैसा ही बना रहेगा।
35. योगकारक ग्रहों के साथ संबंध करने वाले शुभग्रहों की महादशा के योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में योगकारक ग्रह योग का शुभफल देते हैं।
36. राजयोग रहित शुभग्रह - राहु केतू यदि केन्द्र (विशेषकर चतुर्थ और दशम स्थान में) अथवा त्रिकोण में स्थित होकर किसी भी ग्रह के साथ संबंध नहीं करते हो तो उनकी महादशा में योगकारक ग्रहों की अंतरदशा में उन ग्रहों के अनुसार शुभयोगकारक फल देते हैं। (यानी शुभारुढ़ राहु केतु शुभ संबंध की अपेक्षा नहीं रखते। बस वे पाप संबंधी नहीं होने चाहिए तभी कहे हुए अनुसार फलदायक होते हैं।) राजयोग रहित शुभग्रहों की अंतरदशा में शुभफल होगा, ऐसा समझना चाहिए।
37. महादशा के स्वामी - यदि महादशा के स्वामी पापफलप्रद ग्रह हों तो उनके असंबंधी शुभग्रह की अंतरदशा पापफल ही देती है। उन महादशा के स्वामी पापी ग्रहों के संबंधी शुभग्रह की अंतरदशा मिश्रित (शुभ एवं अशुभ) फल देती है।
38. पापी दशाधिप से असंबंधी योगकारक ग्रहों की अंतरदशा अत्यंत पापफल देने वाली होती है।
39. मारक ग्रहों की महादशा में उनके साथ संबंध करने वाले शुभ ग्रहों की अंतरदशा में दशानाथ मारक नहीं बनता है। परन्तु उसके साथ संबंध रहित पापग्रह अंतरदशा में मारक बनते हैं।
40. शुक्र और शनि अपनी-अपनी महादशा और अंतरदशा में शुभ फल देते हैं। यानि शनि महादशा में शुक्र की अंतरदशा हो तो शनि के फल मिलेंगे। शुक्र की महादशा में शनि के अंतर में शुक्र के फल मिलेंगे। इस फल के लिए दोनों ग्रहों के आपसी संबंध की अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए।
41. दशम स्थान का स्‍वामी लग्‍न में और लग्‍न का स्वामी दशम में, ऐसा योग हो तो वह राजयोग समझना चाहिए। इस योग पर विख्यात और विजयी ऐसा मनुष्य होता है।
42. नवम स्थान का स्वामी दशम में और दशम स्थान का स्वामी नवम में हो तो ऐसा योग राजयोग होता है। इस योग पर विख्यात और विजयी पुरुष होता है।

कुंडली में वक्री ग्रहों की महादशा, शुभ-अशुभ प्रभाव तथा उनके भाव स्थिति अनुसार उपाय

वक्रोपगस्य हि दशा भ्रमयति च कुलालचक्रवत्पुरुषम्।
व्यसनानि रिपुविरोधं करोति पापस्य न शुभस्य।
अर्थात वक्री ग्रह की दशा में नित्य देशाटन, व्यसन तथा शत्रुओं का विरोध होता है। पापग्रहों की दशा में ही पाप फल का भोग होता है किन्तु शुभ ग्रह यदि वक्री हों तो उसका शुभफल नहीं होता है।

वक्री ग्रह की दशा-
जन्मांग में जो ग्रह वक्री पड़ा हो वह अपनी दशा अंतर्दशा में अदभुत प्रभावशाली फल दिया करता है। वक्री ग्रह अपने से बारहवें पर भी प्रभावी होने से दो भावों से संबंधित हो जाता है। अतः नवमस्थ ग्रह वक्री होने पर अष्टम भाव संबंधी फल भी देता है।
वक्री ग्रह की दशा में स्थान्च्युति, धन व सुख की कमी व विदेश/परदेश गमन होता है। वक्री ग्रह यदि शुभ भावोन्मुख हों (केंद्र, त्रिकोण, लाभ व धन भाव) तो सम्मान, सुख, धन व यश की वृद्धि करता है।
ध्यान रहे मार्गी ग्रह त्रिक भाव में स्थित हो तो अपनी दशा अंतर्दशा में अभीष्ट सिद्धि में बाधा, व्यवधान व कठिनाई देता है। प्रत्येक ग्रह की एक निश्चित सामान्य चाल है पर कभी ये चाल अनिश्चित हो जाती है। ऐसा प्रतीत होता है मानो ग्रह की गति धीमी पड़ गई है।
वह स्तंभित (स्थिर) सा जान पड़ता है फिर वह ग्रह वक्री हो जाता है। पाप ग्रह (मंगल, शनि) वक्री होने पर अधिक पापी हो जाते हैं तो शुभ ग्रह (बुध, गुरु, शुक्र) भी वक्री होने पर अपनी शुभता में कमी महसूस करते हैं। सूर्य व चंद्र सदा ही मार्गी रहते हैं वे कभी वक्री नहीं होते राहू केतु सदा वक्री रहते हैं वे कभी भी मार्गी नहीं होते।

उदहारण के लिये यदि किसी जन्मांग से गुरु व शनि वक्री होकर लग्न में स्थित हों तो, वक्री गुरु की पाँचवीं दृष्टि कभी चौथे तो कभी कभी पंचम भाव का फल देगी। इसी प्रकार शनि की तीसरी दृष्टि द्वितीय भाव पर पड़ने से वाद-विवाद, परनिंदा में रूचि तो कभी आलस्य, अकर्मण्यता व श्रम विमुखता देगी।
विभिन्न वक्री ग्रहों का प्रभाव-
वक्री मंगल-
उत्साह, साहस, परिश्रम, पराक्रम व संघर्ष शक्ति का दाता है। वक्री मंगल जातक को असहिष्णु, अति क्रोधी तथा आतंकवादी बना सकता है।
जातक की कार्यक्षमता सृजनात्मक न होकर, विनाशकारी हो जाती है। ऐसा लगता है मानो विधाता ने भूल से विकास की बजाए ललाट पर विनाश ही लिख दिया हो।
अपनी दशा अंतर्दशा में वक्री मंगल वैर विरोध तथा आपसी मतभेद बढ़ाकर शत्रुता व मुकद्दमे बाजी भी दे सकता है।
ऐसा वक्री मंगल यदि जनमंग में दुस्थान (त्रिक भाव ६, ८, १२) में हो तो जातक हठी, जिद्दी व अड़ियल प्रकृति का होता है। भूमि भवन व शौर्य पराक्रम संबंधी उसके कार्य प्रायः आधे अधूरे छूट जाते हैं।
जातक किसी से भी सहयोग करना अपना अपमान समझता है। वह देह बल का अपव्यय कर मानो आत्म पीड़न में सुख पाता है।
मंगल एक उग्र ग्रह है जो जातक को स्वार्थी व पशुवत् बना सकता है। ऐसा जातक आत्मतुष्टि व स्वार्थ सिद्धि के लिये अनुचित व अनिष्ट कार्य करने में तनिक भी संकोच नहीं करता वक्री मंगल की दशा/अंतर्दशा में अग्रिम घटनाएं हो सकती हैं।
वक्री मंगल में सावधानियाँ
वक्री मंगल की दशा अंतर्दशा में अस्त्र-शस्त्र न खरीदें, न ही घर में घातक हथियार रखें। वाहन व नयी संपत्ति भी न खरीदें तो अच्छा है नये घर में गृह प्रवेश भी, वक्री मंगल की दशा में, अशुभ व अमंगलकारी माना गया है। यथासंभव ऑपरेशन (सर्जरी) से बचें, क्योंकि ऐसी सर्जरी प्राण घातक हो सकती है। नया मुकद्दमा शुरू करना भी उचित नहीं, कारण ये धन नाश व मानसिक अशांति देगा। नया नौकर/कर्मचारी न रखें कोई नया अनुबंध भी न करें। वक्री मंगल के गोचर में विवाह से बचें। ध्यान रहे, मंगल वायदा व वचन बद्धता का प्रतीक है। इसका वक्री होना बात से मुकर जाना, छल कपट या धोखे द्वारा हानिप्रद हो सकता है।
वक्री बुध-
साधारणतया बुध बुद्धि, वाणी, अभिव्यक्ति, शिक्षा व साहित्य के प्रति लगाव का प्रतीक है। प्रायः बुध अपनी दशा अंतर्दशा में मौलिक चिंतन तथा सृजनात्मक शक्ति बढ़ाकर उत्कृष्ट साहित्य की रचना करता है।
बुध वक्री होने पर अपनी दशा-अंतर्दशा में आंकड़े व तथ्यों पर आधारित लेख व पुस्तक लिखाएगा। जातक अपनी रचना में अंतर्विरोध व परिवर्तन पर अधिक बल देगा कभी तो वह त्रुटिपूर्ण व ग़लत निर्णयों को भी तर्क द्वारा उचित ठहराएगा।
वक्री बुध विचार, भावनाओं व मानसिक प्रवृतियों को प्रभावित कर उनमें क्रांतिकारी मोड़ (बदलाव) देने में सक्षम है। तर्क संगत विश्लेषण से प्रचलित मान्यताओं को ध्वस्त कर जातक मौलिक चिंतन को नयी दिशा दे सकता है।
वक्री गुरु-
साधारणतया गुरु ज्ञान, विवेक, प्रसन्नता व दैवीय ज्ञान का प्रतीक है।
जन्मांग में गुरु का वक्री होना, अदभुत दैवी शक्ति या दैवी बल का प्रतीक है। जिस कार्य को दूसरे लोग असंभव जान कर अधूरा छोड़ देते हैं वक्री गुरु वाला जातक ऐसे ही कार्यों को पूरा कर यश व प्रतिष्ठा पाता है।
अन्य शब्दों में दूसरों की असफलता को सफलता में बदल देना उसके लिये सहज संभव होता है। किसी भी योजना के गुण, दोष, शक्ति व दुर्बलताएं पहचानने की उसमे अदभुत शक्ति होती है।
चतुर्थ भावस्थ वक्री गुरु, साथियों का मनोबल बढ़ा कर, रुके या अटके हुए कार्यों को सफलतापूर्वक सिरे चढ़ाने में दक्षता देता है। जातक की दूरदृष्टि व दूरगामी प्रभावों के आंकलन की शक्ति बढ़ जाती है।
वह जोखिम उठाकर भी प्रायः सफलता प्राप्त करता है। उसकी प्रबंध क्षमता विशेषकर संकटकालीन व्यवस्था चमत्कारी हुआ करती है।
वक्री शुक्र-
शुक्र, मान-सम्मान, सुख-वैभव, वाहन, मनोरंजन, पत्नी या दाम्पत्य सुख व मैत्री पूर्ण सहयोग का प्रतीक है। साधारणतया, शुक्र यदि पाप ग्रह से युक्त या दृष्ट न हो तो, जातक हंसमुख, हास्य-विनोद प्रिय, मिलनसार व पार्टी की जान होता है। उसको देखने भर से ही उदासी भाग जाती है व हँसी-खुशी का वातावरण सहज बन जाता है।
किन्तु शुक्र जब वक्री होता है तो जातक समाज में घुल मिल नहीं पाता। वह एकाकी रहना पसंद करता है।
जातक की अलगाववादी प्रवृति अपने परिवार व परिवेश में अरुचि तथा अनासक्ति बढ़ाती है। कभी गैर पारंपरिक ढंग से भी ऐसा जातक अपना प्यार वात्सल्य दर्शाता है।
यदि किसी जन्मांग में शुक्र वक्री होकर द्वादश भाव (भोग स्थान) में हो तो जातक में भोगों से पृथक रहने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। वह सुख वैभव से विमुख हो कर संन्यासी भी बन सकता है।
वक्री शनि-
शनि को काल पुरुष का दुःख माना जाता है। ये प्रायः दुःख-दारिद्र्य, कष्ट, रोग व मनस्ताप देता है।
वक्री शनि जातक को नैराश्य व अवसाद की स्थिति से उबारता है। जातक निराशा के गहन अन्धकार में भी आशा की किरण खोज लेता है।
वक्री शनि अपनी दशा या अंतर्दशा में आत्मरक्षण व अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये, जातक से सभी उचित, अनुचित कार्य करा लेता है कभी तो जातक स्वार्थ सिद्धि के लिये निम्न स्तर तक गिर सकता है।
ऐसा व्यक्ति सभा गोष्ठी में आना जाना या लोगों से अधिक मेल जोल रखना भी पसंद नहीं करता।
अपने अधिकारों के प्रति भी उदासीन रहता है। कोई व्यक्ति अपने कार्यों को गुप्त रख कर सफलता जनित सुख पाता है।

शनि और विवाह में विलम्ब:

शनि और विवाह में विलम्ब: :-
 
सप्तम भाव को विवाह एवं जीवनसाथी का घर कहा जाता है.इस भाव एवं इस भाव के स्वामी के साथ ग्रहों की स्थिति के अनुसार व्यक्ति को शुभ और अशुभ फल मिलता है.
 
विवाह में सप्तम शनि का प्रभाव: सप्तम भाव विवाह एवं जीवनसाथी का घर माना जाता है.इस भाव शनि का होना विवाह और वैवाहिक जीवन के लिए शुभ संकेत नहीं माना जाता है.इस भाव में शनि होने पर व्यक्ति की शादी सामान्य आयु से विलम्ब से होती है.सप्तम भाव में शनि अगर नीच का होता है तब यह संभावना रहती है कि व्यक्ति काम पीड़ित होकर किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह करता है जो उम्र में उससे काफी बड़ा होता है.शनि के साथ सूर्य की युति अगर सप्तम भाव में हो तो विवाह देर से होता है एवं कलह से घर अशांत रहता है.चन्द्रमा के साथ शनि की युति होने पर व्यक्ति अपने जीवनसाथी के प्रति प्रेम नहीं रखता एवं किसी अन्य के प्रेम में गृह कलह को जन्म देता है.ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सप्तम शनि एवं उससे युति बनाने वाले ग्रह विवाह एवं गृहस्थी के लिए सुखकारक नहीं होते हैं.
 
नवमांश कुण्डली या जन्म कुण्डली में जब शनि और चन्द्र की युति हो तो शादी की बात 30 वर्ष की आयु के बाद ही सोचनी चाहिए क्योकि इससे पहले शादी की संभावना नहीं बनती है. जिनकी कुण्डली में चन्द्रमा सप्तम भाव में होता है और शनि लग्न में उनके साथ भी यही स्थिति होती है एवं इनकी शादी असफल होने की भी संभावना प्रबल रहती है.
 
जिनकी जन्मपत्री में लग्न स्थान से शनि द्वादश होता है और सूर्य द्वितीयेश होता है एवं लग्न कमज़ोर उनकी शादी बहुत विलम्ब से होती है अथवा ऐसी स्थिति बनती है कि वह शादी नहीं करते.शनि जिस कन्या की कुण्डली में सूर्य या चन्द्रमा से युत या दृष्ट होकर लग्न या सप्तम में होते हैं उनकी शादी में भी बाधा रहती है.
 
शनि जिनकी कुण्डली में छठे भाव में होता है एवं सूर्य अष्टम में और सप्तमेश कमज़ोर अथवा पाप पीड़ित होता है उनकी शादी में भी काफी बाधाएं आती हैं.
 
शनि और राहु की युति जब सप्तम भाव में होती है तब विवाह सामान्य से अधिक आयु में होता है.इसी प्रकार की स्थिति तब भी होती है जब शनि और राहु की युति लग्न में होती है और वह सप्तम भाव पर दृष्टि डालते हैं.जन्मपत्री में शनि राहु की युति होने पर सप्तमेश व शुक्र अगर कमज़ोर रहता है तो विवाह अति विलम्ब से हो पाता है.
 
उपाय: जिन कन्याओं के विवाह में शनि के कारण विलम्ब हो रहा है उन्हें हरितालिका व्रत करना चाहिए एवं शनि देव की पूजा करनी चाहिए.पुरूषों को भी शनि देव की पूजा उपासना से लाभ मिलता है एवं उनकी शादी जल्दी हो जाती है.
 
 

शनि महादशा में विभिन्न अन्तर्दशाआें के फल

शनि महादशा में विभिन्न अन्तर्दशाआें के फल :
 
ज्योतिष में माना जाता है कि पूर्व जन्म के पाप-पुण्य का फल वर्तमान के ग्रहों की दशादि से प्रकट होता है। एेसे में अनिष्ट को रोकने एवं अच्छे फल के लिए दशाभुक्ति का ज्ञान होना जरूरी है। ज्योतिष ग्रन्थ जातक पारिजात के अनुसार किसी व्यक्ति के जीवन में मिलने वाले फल दशाआें से उसी प्रकार निर्धारित होते हैं, जैसे वर्ण व्यवस्था में भोग व्यवस्था होती है। ज्योतिष ग्रन्थ सारावली के अनुसार सभी ग्रह अपनी दशा मे अपने गुण-दोष के आधार पर शुभाशुभ फल प्रदान करते हैं। ऐसे में पापग्रह माने जाने वाले शनि की दशाआें का विवेचन ज्योतिषियों ने गहन शोध एवं अनुभव के आधार पर किया है। एेसा इसलिए कि शनि अनुकूल होने पर सुख की झडी लगा देता है, तो प्रतिकूल होने पर भयंकर कष्ट देता है।
 
शनि की साढेसाती, ढैैैैया, कंटक, महादशा, अंतर्दशा और यहां तक कि प्रत्यंतर्दशा भी घातक होती है। शनि के प्रकोप से ही राजा विक्रमादित्य को भयंकर कष्ट भोगने पडे। भगवान राम को वनवास भोगना पडा। वैसे, शनि को न्याय का देवता कहा जाता है। अत: इसकी दशा इत्यादि में अच्छे ज्योतिष से परामर्श लेकर उचित उपाय किए जाएं तो शनिदेव का कोप कुछ शांत भी किया जा सकता है।
 
शनि की महादशा के अन्तर्गत शनि, बुध, केतु, शुक्र, सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, राहु एवं बृहस्पति की अन्तर्दशाएं आती हैं। देखते हैं इन अन्तर्दशाआें के परिणाम-
 
शनि में शनि की अन्तर्दशा -
शनि महादशा में शनि की अन्तर्दशा में जातक पर दु:खों यानी कष्टों का पहाड टूट पडता है। उसको बार-बार अनादर यानी अपमान का सामना करना पडता है। वह समाज विरोधी और घूमंतु हो जाता है। उसके कारण पत्नी-पुत्र दु:खी होते हैं। जातक लंबी बीमारियों से भी परेशान रहता है।
 
शनि में बुध की अन्तर्दशा -
शनि महादशा में जब बुध क अन्तर्दशा आती है, तब जातक के भाग्य मेें वृद्धि होती है। सुख-संपत्ति और सम्मान में बढोतरी होती है। वह आनंद का अनुभव करता है। जातक सदाचार की ओर प्रवृत्त होता है। चित्तवृत्ति कोमल निर्मल हो जाती है।
 
शनि में केतु की अन्तर्दशा -
शनि महादशा में केतु की अन्तर्दशा में पत्नी और सन्तान से वैचारिक मतभेद उभरते हैं। जातक के मन में भय बढता है। पित्त एवं वातजनित बीमारियों से वह परेशान रहता है। बुरे-बुरे सपने देखता है और अनिद्रा का शिकार होता है। यानी उसे पूरी नींद नहीं आती। रातभर बुरे भाव मन में आते रहते हैं और आशंकाएं उभरती रहती हैं।
 
शनि में शुक्र की अन्तर्दशा -
शनि महादशा में शुक्र की अन्तर्दशा में व्यक्ति के दु:खों का अंत होकर सुख मिलने लगता है। उसके संपर्क में उसके हित में सोचने वाले आते हैं। यश और सम्मान की प्राप्ति होती है। शत्रुआें का शमन होता है। पुत्र एवं कार्यक्षेत्र यानी प्रोफेशन एवं नौकरी से सुख प्राप्त होता है।
 
शनि में सूर्य की अन्तर्दशा -
शनि महादशा में सूर्य की अन्तर्दशा आने पर जातक को विभिन्न प्रकार के संकटों का सामना करता पडता है। पत्नी, पुत्र, सम्मान, यश, संपत्ति एवं आत्मविश्वास का नाश होता है। नेत्र एवं उदर रोग परेशान करते हैं। दरअसल, शनि और सूर्य घोर शत्रुु माने गए हैं। इसलिए शनि में सूर्य की अंतर्दशा कष्टकारी रहती है।
 
शनि में चन्द्रमा की अन्तर्दशा -
शनि महादशा में चन्द्रमा की अन्तर्दशा में सुखों का क्षरण होता है यानी सुख में कमी आती है। जातक को पत्नी वियोग झेलना पड सकता है। आत्मीयजनों से संबंध विच्छेद की स्थितियां बनती हैं। व्यक्ति को वातजन्य बीमारी घेरती है। हालांकि धनागम होता है यानी पैसा आता है।
 
शनि में मंगल की अन्तर्दशा -
शनि महादशा में ङ्कंगल क अन्तर्दशा जातक को स्थानांतरण करवाती है। दूसरे शब्दों में पत्नी, पुत्र, मित्र इत्यादि से दूर जाना पडता है। जातक भयभीत और आशंकति-सा रहता है। यश में कमी आती है।
 
शनि में राहु की अन्तर्दशा -
शनि महादशा में राहु की अन्तर्दशा में स्वास्थ्य संबंधी परेशानी होती है यानी यह अंतर्दशा रोग लाती है। सरकार और शत्रु से परेशानी होती है। संपत्ति एवं यश की हानि होती है। हर काम में बाधा आती है।
 
शनि में बृहस्पति की अन्तर्दशा -
शनि महादशा में बृहस्पति की अन्तर्दशा आमतौर पर श्रेष्ठ फल प्रदान करती है। जातक का गृहस्थी सुख बढता है। स्थाई संपत्ति में वृद्धि होती है। पदोन्नति होती है एवं सम्मानजनक पद की प्राप्ति होती है। इस दशा में जरूरत पडने पर जातक को सत्ता का संरक्षण भी मिलता है। जातक के मन में वरिष्ठजनों एवं धर्म के प्रति आदरभाव बढता है। वैसे, शनि महादशा मेें विभिन्न ग्रहों की अन्तर्दशाआें के उपरोक्त फल जन्मकुंडली मेें ग्रहाेें
के पारस्परिक संबंधों पर निर्भर है। इसलिए जन्मकुंडली में यह देखकर ही फलादेश किया जाना चाहिए।
 
शनि के प्रकोप से बचने के उपाय :
शनि की साढे साती, ढैया, महादशा एवं अन्तर्दशा में शनि के प्रकोप से बचने के लिए कई उपाय किए जाते हैं। निम्नलिखित उपायों में से अपनी श्रद्धा एवं क्षमतानुसार कोई उपाय करके शनिदेव को शान्त करने का प्रयास किया जा सकता है :
1. किसी शु्क्ल पक्ष के शनिवार से शुरू कर वर्षभर हर शनिवार को बन्दरों और काले कुत्तों को लड्डू खिलाएं।
2. शनिवार को काली गाय के मस्तक पर रोली का तिलक लगा, सींगों पर मौळी बांधकर पूजन करने के बाद गाय की परिक्रमा कर उसे बूंदी के चार लड्डू खिलाएं।
3. हर शनिवार बन्दरों को मीठी खील, केला, काले चने एवं गुड खिलाएं।
4. हर शनिवार को काले कुत्ते को तेल से चुपडी रोटी मिठाई सहित खिलाएं।
5. शनिवार को व्रत रखें। नमक रहित भोजन से व्रत खोलें। सूर्यास्त के बाद हनुमान जी का पूजन दीपक में काले तिल डालकर तेल का दीपक प्रज्वलित करके करें।
6. शनिवार को पीपल के वृक्ष के चारों ओर सात बार परिक्रमा करते हुए कच्चा सूत लपेटें। इस दौरान ॐ शं शनैश्चाराय नमः: मंंत्र का उच्चारण करते रहें।
7. शनिवार को कच्चे दूध में काले तिल डालकर शिवलिंग पर अभिषेक करें।
8. रोजाना प्रात: शनि के इन दसनामों का उच्चारण करना चाहिए-
कोणस्थ, पिंंगल, बभ्रु, कृष्ण:, रौद्रान्तक:, यम:, शौरि:, शनैश्चर:, मन्द:, पिप्पलादेव संस्तुत:।
9. सूर्यास्त के बाद पीपल के वृक्ष के नीचे ॐ शं शनैश्चाराय नमः:मंत्र का जप करते हुए सरसों के तेल में काले तिल डाल आटे का चौमुखा दीपक प्रज्वलित कर पीपल क सात परिक्रमा करें।
10. झूठ न बोलें, चरित्र सही रखें और मांस अाैैैर मदिरा का सेवन न करें।
11. मंगलवार का व्रत करें। प्रत्येक मंगलवार को हनुमान मंदिर में हनुमान जी की मूर्ति के आगे के पैैैर पर लगेे सिंंदूर का तिलक कर 11 बार बजरंग बाण का पाठ करें।
 


 

अपनी राशि से जानें, कितना खुशहाल रहेगा आपका वैवाहिक जीवन

विवाह के मामले में भाग्य की सबसे बड़ी भूमिका होती है. दो राशियों के बीच आपसी सम्बन्ध से वैवाहिक जीवन बनता ओर बिगड़ता है. अगर आपकी राशि के मित्र राशि से विवाह होता है तो जीवन सुखी होता है अन्यथा जीवन भर सुख पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. कुछ तत्वों को ठीक करके वैवाहिक जीवन को ठीक किया जा सकता है.
मेष-
आम तौर पर इनका वैवाहिक जीवन अच्छा होता है. इनके लिए कर्क , तुला और मकर राशि से विवाह उत्तम होता है. वृश्चिक और कुम्भ राशि इनके लिए भारी हो जाती है. सुखद वैवाहिक जीवन के लिये सूर्य को हल्दी मिलाकर जल चढ़ाएं.
वृष-
आम तौर पर इनका वैवाहिक जीवन साधारण ही होता है. इनके लिए कुम्भ , वृश्चिक और सिंह राशि उत्तम होती है. इन्हें धनु और मीन राशि से मुश्किल होती है. सुखद वैवाहिक जीवन के लिए हनुमान जी की उपासना करें.
मिथुन-
आम तौर पर शुरुआत में समस्याएं होती हैं. थोड़े समय के बाद ही वैवाहिक जीवन ठीक हो पाता है. इनके लिए कन्या ,धनु और मीन राशि उत्तम होती हैं. इन्हे मेष और वृश्चिक राशि से विवाह से बचना चाहिए. बृहस्पतिवार का व्रत और स्वर्ण धारण करने से लाभ होता है.
कर्क-
आम तौर पर वैवाहिक जीवन सुखी नहीं होता है. विवाह के लिए तुला , मकर और मेष राशि उत्तम होती हैं. वृष , धनु और कुम्भ राशि से विवाह के परिणाम अच्छे नहीं होते हैं. सुखद वैवाहिक जीवन के लिए शनि देव की उपासना लाभकारी होती है.
सिंह-
आम तौर पर खट्टा मीठा वैवाहिक जीवन चलता रहता है. विवाह के लिए वृश्चिक ,कुम्भ और वृष राशि अच्छी मानी जाती है. इनके लिए मकर , वृष और तुला राशि से विवाह अच्छा नहीं होता है. सुखद वैवाहिक जीवन के लिए शिव जी की उपासना सर्वोत्तम होती है.
कन्या-
वैवाहिक जीवन बहुत अच्छा नहीं रहता है. इनके लिए मिथुन , धनु और मीन राशि ठीक रहती है परन्तु मेष , वृश्चिक और सिंह राशि कभी ठीक नहीं होती है. सुखद वैवाहिक जीवन के लिए विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें.
तुला-
वैवाहिक जीवन और जीवनसाथी अच्छा होता है. इनके लिए मकर , कुम्भ और मेष राशि उत्तम होती है. इनके लिए वृष , कन्या धनु और मीन राशि उत्तम नहीं होती हैं. सुखद वैवाहिक के लिए बजरंग बाण का पाठ करें.
वृश्चिक-
वैवाहिक जीवन या तो बहुत अच्छा होता है या बहुत ख़राब. इनके लिए वृष , सिंह और कुम्भ राशि सर्वोत्तम होती है. कर्क , धनु , मकर और मिथुन राशि से बचना चाहिए. सुखद वैवाहिक जीवन के लिए देवी की उपासना अनुकूल होती है.
धनु-
शुरू में काफी गड़बड़ पर बाद मे अच्छा हो जाता है. इनके लिए मिथुन , कन्या और मीन राशि उत्तम होती हैं. वृष , तुला और कुम्भ राशि कभी भी अच्छी नहीं होती. सुखद वैवाहिक जीवन के लिए गणेश जी की उपासना शुभ होती है.
मकर-
अच्छा वैवाहिक जीवन होता है, बशर्ते कि ये खुद गड़बड़ न करें. इनके लिए मेष , कर्क , तुला और कुम्भ राशि उत्तम होती है. धनु , मीन और सिंह राशियां उत्तम नहीं होती. सुखद वैवाहिक जीवन के लिए चन्द्रमा को जल दें. चांदी धारण करें.
कुम्भ-
मिला जुला सा वैवाहिक जीवन चलता रहता है. इनके लिए मकर , वृष , वृश्चिक और तुला राशि अनुकूल होती है. इन्हें सिंह , धनु और मेष से बचना चाहिए. नित्य प्रातः रोली मिलाकर सूर्य को जल अर्पित करें.
मीन-
बहुत अच्छा वैवाहिक जीवन नहीं होता है. इनके लिए मिथुन , कन्या और धनु राशि उत्तम है. कुम्भ , वृष और तुला से परहेज़ करना चाहिए. गणेश जी की उपासना से लाभ होता है. लाल रंग से परहेज़ करें।